मैं बादलों को छूने
आगे बढ़ती हूँ,
और चलते चलते कहीं
भीड़ में मिल जाती हूँ।
उस भीड़ से बेचैन होकर
सपनों की तलाश में,
उस रास्ते को छोड़कर
कहीं और चली जाती हूँ।
कुछ गुमनाम सा
सूनसान सा
कहीं मोड़ आता है,
किसी के साथ के इन्तजार में
वहीं रुक जाती हूँ।
उस राह पर जाता
दिखता है कोई।
पर वो रुकता नहीं
और ना कोई जवाब आता है।
सोचती हूँ आगे अकेले ही चली जाऊँ,
पर फिर एक परछाई दिखती है,
और दिल घबराता है।
मैं साँसे रोककर अपनी
मैं पलकें पोंछकर अपनी
और थक-हारकर वहीं
मैं रुक जाती हूँ।
किसी हमराही के आने का
करके कुछ दिन इन्तजार
मैं वापस लौट जाती हूँ,
ख्वाहिशें भूलकर अपनी
मैं भीड़ में मिल जाती हूँ।